नव वर्ष
नव वर्ष की प्रथम निशा, तिस पर वर्षा घनघोर हुई
काँप उठा कोना कोना, जनता घर की ओर हुई
व्याकुल होकर खग-वृन्द भी नीड़ को अपने लौट चले
संध्या बड़ी विकट रही थी , रात्रि और कठोर हुई
विकल पथिक भी वाचा करते एक सबब हैरानी का
काँपते होठों पर था शिकवा ईश्वर की मनमानी का
किसे दिखता था वह बालक जो दुबका हुआ था कोने मे
रात का कोहरा घना था ज्यादा या शायद गुमनामी का
अभी उषा की प्रथम किरण थी स्याह गगन में बहुत दूर,
और हृदय बेधती सर्द हवाऐं करती जीने का उत्साह चूर,
सृष्टि ठान बैठी थी मानो होगी आज एक प्रलय क्रूर,
ऐसे जीवन के लालच में भी बैठा था वह अनन्य शूर
उस कठोर शीत का सामना कर न सकी जब पेट की आग,
जम गया उसका लहु रागों में, गूंजा उस पल एक ध्वंस-राग,
थम गयी उसकी हृदय गति, दृश्य देख रोये विटप वर
पर जीवित लगता था पहली बार, करके इस जीवन का त्याग|
- Pratyush Srivastava
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