किसे ग़म है | کسی غم ہے : Short Urdu poem by Pratyush Srivastava




शमा बुझ गयी थी उस रोज़,वो जब आये थे मेरी महफ़िल में,
ख़ैर जब नूर-ए-जहां ही देख लियातो रौशनी रहे न रहे किसे ग़म है।

बक्श दे उसे हर ख़ता के मौला,उसे क्या पता था हमने क्या लुटा दिया।
बस इतनी दुआ क़ुबूल कर ले मेरी,फिर बंदगी रहे न रहे किसे ग़म है।

जो क़यामत का दिन हो मुकरर,एक नज़र-ए-इनायत इधर भी रखना,
जहाँ में बस एक वो सलामत रहें,और कुछ भी रहे न रहे किसे ग़म है ।

रात ढले न ढले, बात बने न बने,सांस चले न चले , होश रहे न रहे
मेरा ज़िक्र महफूज़ रहे उनके होठों परतो ज़िन्दगी रहे न रहे किसे ग़म है !
- Pratyush Srivastava

शमा ⇒ lamp, source of light
नूर-ए-जहां ⇒ light of the world
ख़ता ⇒ mistake
बंदगी ⇒ devotion to allah
मुकरर ⇒ decide, finalize
नज़र-ए-इनायत ⇒ to do a kind favour
महफूज़ ⇒ safe